इस जिन्दगी में

छिन ली मेरी अपार उर्जा,

शहर के बंद कमरे ने,

जिसमें मै मेरे परिवार से दूर ,अकेला रहा करता था

बेरोजगारी की ठोकरे खाता,रोजगार को

तलाशता फिर रहा था,

छीण हुई मेरी शक्ति को लेकर

जब मै मेरे गांव को आया,

मेरे माता पिता जो है

एक खेतिहर किसान

उनके साथ खेत को गया,

उगते प्रभाते,

भरे बाजरे के खेत में,

हुई उमश

जोर की,

तरबर हुई मेरी ललाट

भीग कर पसीने से,

फसल को इक्कठा

करने का जो दुपट्टा था वो भी भीग गया,

मानो वो खुद रोया हो

इस भरी गर्मी दुपहरी में,

मैं कई बार रोया

खोया

इस जिन्दगी में सोया जागा उठा फिर चला

थका हारा मांदा फिरा

चमचमाती धूप में,

तपती रेत के कणो को देखता फिरता

खेत में काम करता चलता रुकता गिरता संभलता

किसान का दर्द खुद झेलता छोड़ता आह भरता हुआ फिर रोता।

©अग्यार’बिश्नोई’

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