उड़ने की चाहत में भूल गये हम अपनों को !
छोड़ मानवता तबज्जो दी सिर्फ सपनों को!
शोहरत तो मिली पर संग में पायी तन्हाई !
भूल रहे संस्कार रिश्तों की हो रही रुसवाई।
लालच कामयाबी की ,हमें कितना दूर है ले आयी!
ना वतन से प्रेम रहा,ना अपनों को याद कर आँखों में नमी आई!
हो गये मशरूफ़, फिर भी मशहूरियत हाथ न आयी!
निगल गयी अनमोल प्रेम को कैसी ये लालच हरजायी ।
इतनी ऊपर उड़े कि जमीं भी नज़र हमें ना आयी!
आत्मा हमारी चकाचौंध और जीत की चाह मे भरमाई।
©Priya pandya