प्रकृति का दिव्य स्वरूप


शून्य अधर हैं नील व्योम के, संवाद धरा से क्यूँ कर करे
पर्वत के शिख़र से सागर की गहराई तक अभिराम असर करे

उपवन के विनित हृदय की पुकार ऋतु रानी बसंत ने सुनी
पुष्पों की कोमलता लिए डाल-डाल पर बहार बनकर खिली

प्रकृति के विविध रूपों का अलंकरण देख हैं स्तब्ध नक्षत्र
कवियों की कृतियों में भी प्रकृति की है सुगंधित श्याही मानो इत्र

कहीं दरिया की बेचैन लहरें प्रेम सरोवर बन जाने को आतुर
सुर्ख नैनों से संध्या निहारती धरा-गगन का दिव्य आलिंगन

पुष्पों पर ओस की बूंँदे बेदाग खूबसूरती का अद्भुत दृश्य है
हृदय दिग्बंधन हुआ देखकर प्रकृति का अनुपम परिदृश्य है
अधूरे ख्वाब रहने देती नहीं कभी कुदरत मांँ का प्रतिरूप है
अन्नपूर्णा , जीवनदायिनी, सृष्टि स्वरूपा के अनगिनत रूप हैं

संरक्षण प्राकृतिक विरासत का करना मनुष्य का कर्तव्य है
परहेज है एक आदत प्रकृति की तभी ना करती नित्य तांँडव है

©Kaur Dilwant

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