यह मासूम निगाहें न जाने
कितने ख़्वाब सजाए बैठी है
बस कुछ जिम्मेदारीया है
जो इनके हर ख़्वाब दबाए बैठी है
माँ सरस्वती पे माँ लक्ष्मी भारी है
बस दो आख़र पर
दो जून की रोटी की भूख भारी है
आओ मिल के हम सब
इनका कुछ बोझ घटाए
लाख मजबूरियाँ सही
कुछ तो हया शरम हमे भी बनाए बैठी है…
©मानसिंह सुथार
श्रीगंगानगर राजस्थान
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