बेरोजगार की दशा / मानसिंह सुथार

आओ गाथा सुनाता हूँ आधुनिक भारतवर्ष की
आँख़ों मे हजारो स्वप्न लिए , नौजवानों के संघर्ष की

हाथों में भान्ति भान्ति के कौशल के प्रमाण पत्र लिए
व्यथा हैं ये युवा रोजगार के दुस्वप्न के उत्कर्ष की

आज के राज में जनसेवक भी राजेश्वर हुए बैठे हैं
क्या बात करू आज के युवा की दयनीय दशा के संघर्ष की

दो जून की रोटी मुश्किल हुई जा रही हैं , बड़ी लाचारी हैं
आत्मा की वेदना ही निचोड़ है , इस लाचार निष्कर्ष की

बड़ी बड़ी बाते,लोकतंत्र से हुए इस राजतंत्र की ,क्या कहने
व्यथा है ये आज के चाणक्य के पकौड़े तलने के अपकर्ष की

कवि हूँ मैं भी बेरोजगार हूँ , सरस्वती से लक्ष्मी रूठी रहती है
कथा कहो व्यथा कहो ये घड़ी है आत्मचिंतन के निष्कर्ष की..

©मानसिंह सुथार

हमें विश्वास है कि हमारे रचनाकार स्वरचित रचनाएँ ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे प्रिय रचनाकार व पाठक यह दावा भी करते है कि उनके द्वारा भेजी रचना स्वरचित है। 

आपकी रचनात्मकता को काग़द देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहाँ क्लिक करे