अंजान मुसाफिर /सिया

“यूं ही चलते-चलते सफर में,
मिल गया एक अनजान मुसाफिर।

जिस से रास्ता पूछने के लिए रुकी मैं,
और वो भी संग मेरे चलने लगा।

उसके साथ से मुझे सफर अब,
आसान और रंगीन लगने लगा।

रुकी-रुकी सी थी जो ज़िंदगी,
साथ से उसके दौड़ने लगी।

सफर में अब मज़ा सा आने लगा,
और मन सकारात्मक ऊर्जा से भरने लगा।

साथ चलते-चलते वो अजनबी सा अनजान मुसाफिर,
कब अपना सा लगने लगा पता ही न चला।

मेरे प्रभु यही विनती करूंगी आपसे,
यह अनजान सफर हमारा एक हो जाए।

मंजिल भी मिले और यह कारवां रुकने ना पाएं,
और यह कारवां रुकने ना पाएं।

बड़ी मुदद्तो से फिर चलना सीखा है
साँसे तो चलती थी, जीना सीख पाए है”।

©सिया

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