नारी नारी जो है प्रतीभा से भरी
सब कुछ संभाल सकती है, है वो बड़ी प्यारी
सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक
करतीही रहती वो काम भारी भारी
पर इस लिये ना कहो उसको बेचारी
दफ्तर तक को वो संभाल लेती
घर की परंपरा भी बखुबी निभाती
ना जाने कुछ लोगों को
उसकी उड़ान क्यू नही भाती
और ऊपर से वो बेचारी है कहलाती
रामायण, महाभारत से लेकर
निर्भया तक के सफर मे वो ना हारी
पर ना जाने क्यू सबको लगती वो बेचारी
अब ना झुकेगी ना रुकेगी
हमेशा थी, है और रहेगी
आत्मनिर्भर नारी, आत्मनिर्भर नारी
– कु. प्रगती ईश्वरचंद साहुजी
औरंगाबाद, महाराष्ट्र
हमें विश्वास है कि हमारे रचनाकार स्वरचित रचनाएँ ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे प्रिय रचनाकार व पाठक यह दावा भी करते है कि उनके द्वारा भेजी रचना स्वरचित है।
आपकी रचनात्मकता को काग़द देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए यहाँ क्लिक करे।