हॉं, मैं नारी हूॅं।
मैं प्रकृति, मैं जननी और मैं ही संहारी हूॅं।।
हर बार, मेरे अस्तित्व को, चर्चा में लाया जाता है;
कुछ पल के लिए मुझे, महान बताया जाता है।
होती है बात, मेरे हक़, मेरे अधिकारों की;
फिर बन के रह जाती हूॅं मैं,
कैदी चार दीवारों की।।
है सोच बदल रही, देश कर रहा विकास है;
हर अंधेरी कोठरी में, हो रहा प्रकाश है।
समाज-सुधारक, यहां फैला रहे, ज्ञान हैं;
फिर भी, कुछ छोरियॉं, अपने हक से अंजान हैं।।
हॉं, मैं नारी हूॅं।
मैं प्रकृति, मैं जननी और मैं ही संहारी हूॅं।।
मेरे ही रूप-सी वो छाया भी, नारी कहलाती है;
है अवसर मिलता बार-बार, फिर भी गंवाती है।
अधिकार वो मांगती है, पर कर्तव्य भूल जाती है;
नारी जाति का मुद्दा भी, स्वार्थ के लिए उठाती है।।
हॉं, मैं नारी हूॅं।
मैं प्रकृति, मैं जननी और मैं ही संहारी हूॅं।।
देखो, वो स्त्री, चुपचाप क्यों खड़ी है?
है अबला-सी वो, अपने हाल पे पड़ी है।
चाहत होगी, उसकी भी भरने को उड़ान;
पर करने को समझौता, वो विवश बड़ी है।
हॉं, मैं नारी हूॅं।
मैं प्रकृति, मैं जननी और मैं ही संहारी हूॅं।
©अंजली मौर्या
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