बहुत बार
उलझी सी स्वयं को समेटकर
निकल पड़ती हूं
उन्हीं भ्रमित रास्तों पर
दिशाएं भी अक्सर भटक जाती हैं जहां
जहां, न कोई छोर
न ठहराव ,
और न ही कोई अंत ,
..
..
और, छोड़ आती स्वयं को
उतना ही उलझा हुआ..
उतना ही भ्रमित..
उतना ही दिशाहीन..
अगली तलाश तक !!
नमिता गुप्ता “मनसी”
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