आशा की एक-एक ईंट को
विश्वास की सीमेंट से जोड़कर
बनाया था एक प्रेम महल
फिर
किसने तुम्हें अकेले
दिया इसे तोड़ने का अधिकार
रोती-बिलखती छोड़ मुझे
अक्सर कहाँ भाग जाते हो
क्या?
नहीं जानते हो
हो जाता है कितना मुश्किल
इन बच्चों के साथ रहना
बाहर की दुनिया के गिद्धों से
खुदको और अपने प्यारे चूजों को बचाना
नहीं डरते हैं ये गिद्ध
सिंदूर की लाल रेखा से
झाँकते रहते हैं खिड़की दरवाजों से
जो दिन में नाक पर
बैठने तक नहीं देते मक्खी
वे रात में ताकते फिरते हैं
दीवारों में सूराक
फिर लौट आते हो तुम
थक-हारकर
समझ पति का अधिकार
कि मैं पत्नी हूँ तुम्हारी
औरत नहीं
मैं गुलाम हूँ तुम्हारी
इस दुनिया ने
मेरे लिए बनाए हैं
हजारों नियम-कानून
और
बाँधे गए हैं मेरे पाँव
मर्यादा की जंजीरों में
लेकिन
लहूलुहान है आज की स्त्री
उभर आए हैं उसकी देह पर
मर्यादा की जंजीरों के जख्म
प्रश्न करता है मन मेरा
क्यों, नहीं बनाई हमारे ऋषि-मुनियों ने
कोई जिम्मेदारियों की रस्सी
जिससे बाँध सके कोई पत्नी
अपने शराबी
और भगोड़े पति के पाँव
©डॉ. प्रेम कुमार
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