दोपहर का वक्त था ,मैं रोज़ की तरह ग्रहस्ती का सारा काम निबटाकर इत्मीनान से लेटने चली गई,ये एक घंटा सिर्फ मेरा अपना होता है। मैं यादों का पर लिए अपने अतीत के सुनहरे पलों में उड़ जाती हूँ। पिछले कुछ दिनों से कुछ बेचैनियों ने जकड़ा था मुझे, बहुत याद आ रहा था बरसो पहले खोया हुआ अपना नाक़ामयाब प्यार ।
तभी अचानक फोन की घंटी बजी और मैं ख़्वाबों से जाग गई,
कोई अनजाना नंबर था मैंने जल्दी से बिना कुछ सोचे कॉल को रिसीव करते हुए कहा-” हैलो”
वहां से कांपते हुए आवाज़ में जवाब आया ..है..लो..मे..आई टॉक.. विथ.. भावना…।
मैने हैरान होकर कहा “येस भावना इस हेयर”, आप!
आवाज़ आई, मैं” विवेक शर्मा” दार्जिलिंग से बोल रहा हूं,तुम कैसी हो।
वि- वे – क मैं स्तब्ध हो गई बीस साल बाद उसके आवाज़ को सुनकर पूरे शरीर में एक तरंग सा दौड़ उठा, मेरे मुंह से आवाज़ नही निकल रही थी,मुझे अपने कानों पर यकीन नही हो रहा था,बड़ी मुश्किल से संभलते हुए मैने कहा- तुम.. ज़िंदा.. हो विवेक ।
उसने कहा हम्मम्मम्म… ज़िंदा हूं ।
मेरे दोनो आँखों से सुकून, तड़प , डर और ना जाने कितनी भावनाओं ने मुझे जकड़ लिया और बरबस आँसू बरसने लगा,वो सारी यादें तस्वीरें बनकर आँखों के सामने नाचने लगी ,वो एक साथ ना जाने कितने सवाल पूछे जा रहा था,पर मुझे सिर्फ उसकी धीमी सरल वही सबसे अपना-सा लगने वाला आवाज़ ने मानो जकड़े रखा था। मैं बहुत कुछ पूछना चाहती थी पर होंठ थरथरा रहे थे, और आँसू किसी टूटे बांध के बहती नदियों के ऊफ़ान-सा बहती ही जा रही थी।
लगभग बीस मिनट तक उसको सुनती रही और ख़ुद को संभालने के बाद मैने पूछा तुम कैसे हो! शादी की..?आवाज आई हम्मम्मम्मम.. एक बेटी हैं।
मुझे खुशी और दर्द दोनो ने एक साथ जकड़ा वो किसी और का हो चुका है,आज भी आत्मा को स्वीकार नही था।
मैने रुआंसी आवाज़ में हंसने की कोशिश करते हुए पूछा
आप तो कहते थे मेरे बग़ैर किसी और का ना हो सकोगे
आवाज़ आई तुम भी तो कहती थी – “मेरे बग़ैर मर जाओगी” आज बड़ें ऐश की ज़िंदगी जी रही हो… हैं ना?
©हेमा
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