जीवन एक रंगमंच / मानसिंह सुथार

मेरा रंगमंच सज रहा है
पटल पर अवतरण का समय है , अब आना है मुझे
गर्भनाल कट चुकी है बधाईयां बँटने लगी है
पहला संवाद “किलकारी ” अब बोलना है मुझे |

पहला मेरा किरदार ” पुत्र ” का मिला है मुझे
माँ का आँचल और , पिता का सह किरदार मिला है मुझे
कुछ वर्ष जीना है इसे स्वेच्छा से , स्वछन्द बेफ़िक्री में
ये समय की धारा में बहता रंगमंच है , अब किरदार बदलना है मुझे |

दुसरा मेरा किरदार ” पति ” का मिला है मुझे
अर्द्धनारीश्वर के स्वरूप अर्धांगिनी मिली है मुझे
अब वंश वृद्धि की और अग्रसर होते हुए एक बार फिर
इस रंगमंच पर अपना किरदार बदलना है मुझे |

तीसरा मेरा किरदार ” पिता ” का मिला है मुझे
एक सन्तान की पैदाईश के बाद परवरिश करनी है मुझे
बड़ी तल्लीनता से सभ्य और शालीनता की शिक्षा देनी है
संन्तान को सब कुछ सोंपकर , फिर किरदार बदलना है मुझे |

चौथा मेरा किरदार ” पितामह (दादा) ” का मिला है मुझे
अब विश्राम करते हुए नाती पोतो संग खेलना है मुझे
खेल खेल में अपने अनुभव फिर से बताकर जाना है सबको
फिर इस रंगमंच के लिए एक ” कलाकार ” तैयार करना है मुझे |

अंतिम किरदार जो मिला वो कुछ ऐसा है
इस रंगमंच का एक ” कलाकार ” के अभिनय का पटाक्षेप है
सब कुछ समेटकर , अब रंगमंच छोडकर जाना है मुझे
अंतिम मंचन ” मृत्यु ” का मंचन कर , अलविदा कहना है मुझे |

©मानसिंह सुथार
श्रीगंगानगर , राजस्थान

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