बदलता समाज/ झाहिदा पठान

बदलता समाज है,
बदलती विचार धारा है,
किस ओर से किस तरफ जाता इंसान है,
किस तरह के बदलाव को स्वीकारता समाज है।
कौन से उसूल बदले,
कौन से रिवाज बदले,
किन अधिकारों को समाज ने बदले।
कुछ रस्में न बदलती कभी,
कुछ प्रथाएँ ना सुधरती कभी,
फिर भी दिल बहलाने को,
हर आम आदमी लगता यही नारा है,
बदलता समाज है।
भेंट चढ़ती आज भी जुल्म के ,
हैं कई बहु बेटियाँ,
फिर भी इंसानियत है चींखें,
बदलता समाज है।
गरीब अब भी मरता है भूख से,
किसान अब भी लेता खुद अपनी जान है,
सियासत फिर भी करें बवाल है,
बदलता समाज है।
कुछ न बदले यहाँ ,
कुछ न सुधरे यहाँ,
फिर भी हर तरफ शोर है,
बदलता समाज है।



©झाहिदा पठान
महाराष्ट्र , रायगड़

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