कलतक सहलाया करता था जिसके बाल,
अब चोटियों में रबड़ लगाने लगी है।
कलतक दौड़ आती थी हुमकती हुई जो,
अब दामन वो अपना बचाने लगी है।
गूँजता था आँगन चहचहाने से जिसके,
वो सलीके से दुपट्टा चढ़ाने लगी है।
गुनगुनाती थी नग़मे जो बेबाक होकर,
बात करने में अब वो सकुचाने लगी है।
छूटती न थी बात कोई भी जिससे,
वो राज़ अपने सारे छुपाने लगी है।
रहती है अब वो गुमसुम-सी गुड़िया,
ख़्याली हँसी होठों पे आने लगी है।
सच ही कहा है, ग़ैर होती है बिटिया,
अब बनाने वो सारे बहाने लगी है।
अब शायद चिड़िया न आएगी आँगन,
घोंसले के तिनके हटाने लगी है।
©कुमार अविनाश केसर
मुजफ्फरपुर, बिहार
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