बुरा मान गए / कुमार अविनाश केसर

वे ढूँढते रहे अख़बारों  में अपने निशाँ ,न मिले
मैंने कह दी,सुनी- सुनाई बात तो बुरा मान गए।

दिल ने दिल से की थी कभी मुलाक़ात अकेले में,
मिलके कह दी आमने सामने तो बुरा मान गए।

ज़िन्दगी भर तड़पते रहे शख्सियत को मग़र,
मैं बन के खड़ा हो गया आईना तो बुरा मान गए।

ज़मीर का जाम पीने की थी तड़प लेकिन,
दिखा दी अपनी औक़ात तो बुरा मान गए।

ज़मीं पे पैर नहीं, सर पे आसमाँ उठा रखा था,
काँटों पे पड़ गए तलवे तो बुरा मान गए।

©कुमार अविनाश केसर

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