कागज न होता, तो कलम क्या करती?
कैसे ये राज वक़्त के, धरा पर रखती!
अहसासों की कोई रवानी न होती!
बस बेजुबान सबकी कहानी ही होती!
कागज़ का मौल, लिखने वाला ही जानता है!
कागज़ को वह तो,अपनी आत्मा मानता है!
नहीं दूर हो सकती जैसे आत्मा शरीर से!
नहीं मिट सकती कागज़ की छाप कवि के हृदय से!
©श्वेता दूहन देशवाल
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
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