कवि को नही पता / डॉ. कवि कुमार निर्मल

कवि को नहीं पता…
सामान्य जन जीवन कब होगा आसान?
सुनिश्चित करे सबका रोटी कपड़ा और मकान।
वारिस हैं हम सब उसी एक मालिक के,
दिया हमें समन्दर- हिरे-सोने की खान।
आयेगा वह दिन।
एक दिन आयेगा।
पेट पालने को, मुँह में दाने को,
देहों के गुह्यद्वार नहीं बिकेंगे।
माँ के स्तन से चिपट चूसते शिशु को,
दूध की जगह रक्त के क्षार नहीं डसेंगे।
निकले पेट लकड़ी से हाथ पाँव,
पुतलों जैसे मिलेंगे खेतों में खड़े,
पेट के तुष्टीकरण को आते,
मूर्ख खगसमूह को भगाने को।
वे गलियों में नंगे नहीं घूमेंगे।
हवाओं में वह अम्ल नहीं होगा।
जो बाहों की मछलियों को गला देगा।
नासा की राह फेफड़ों से होते पैरों में पहुँच,
हड्डियों को यक्ष्माग्रस्त बना देता।
धरती पानी से कभी नहीं लजायेगी।
आदमी के पानी के दम हरदम लहलहायेगी।
बंजरता बस रह जायेगी एक शब्द सी,
अकाल के साथ सिमटी शब्दकोष में,
सपनों की दुनिया में जीते जवानों के भाष्य को।
उस दिन के बाद कोई आत्महत्या नहीं करेगा,
और इन्द्रों के हो जायेंगे आत्मापरिवर्तन।
हृदय तो उनके पास होते ही नहीं,
देह में रक्तप्रवाह के अभाव की पूर्ति
वे रक्त चूसते कर दूहन।
धीमे, सुनियोजित नरमेध यज्ञ,
अवैध घोषित कर दिये जायेंगे।
उनके लिये होगा मृत्युदंड बस,
मनुष्यों के भाग्य बन्द नहीं होंगे।
वृक्षों के परिसंस्कृत सफेद शवसमूहों में।
मेज पर फाइलें चलेंगी,
पैरों में लाल फीते का बन्धन, जंजीर नहीं होंगी।
प्रार्थनापत्रों पर टिप्पण हस्ताक्षरों में,
विनम्रता होगी, उनसे स्याही ग़ायब होगी।
फरमान खून लिखे जारी होगें।
त्याग, शील, लज्जा, ममता, सहनशीलता,
बर्बरता की कसौटी नहीं कसे जायेंगे।
‘घर एक मन्दिर‘ में नहीं गढ़ी जायेंगी।
नित नवीन अश्रुऋचायें, जीवन के क्षण
नहीं होंगे सुलगते धुँआ भरे अनेक हविकुंड,
बलियां देवी-देवताओं को नहीं चढ़ाई जायेंगी।
‘घर में शांति से रह पाना‘ दुराशा नहीं होगी।
और न उसके लिये नपुंसकता अनिवार्य होगी।
रोटी, कपड़ा और मकान के साथ उत्कोच,
जीने की मूलभूत आवश्यकता नहीं होगा।
रचनाशीलता नहीं भटकेगी,
सीवर, पानी और बिजली के ग़लियारों में,
सूरज को उगने के लिये नहीं रहेगी।
रोज जरूरत नये घोटालों की।

वह दिन कवि की मृत्यु का होगा-
पन्नों पर न दुख होगा और न क्रांति की हुँकारें,
न ललकार होगी, न सिसकार होगी।
और न दुत्कार होगी।
जीवन सुन्दर होगा, प्रेमिल होगा।
कृतियाँ तब भी रची जायेंगी,
आनन्द के वाक्य तब भी रचे जायेंगे।
मुझे नहीं पता कि उस युग में वासी उन्हें,
कविता कह पायेंगे।।

© डॉ. कवि कुमार निर्मल

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